Dharmakshetra-kurukshetra ka parichay धर्मक्षेत्र-कुरुक्षेत्र का परिचय

                        

धर्मक्षेत्र-कुरुक्षेत्र का परिचय - Dharmakshetra-kurukshetra ka parichay


सञ्जय जाने में कई भाव हो सकते हैं-

Dharmakshetra-kurukshetra ka parichay  धर्मक्षेत्र-कुरुक्षेत्र का परिचय
(क) दुर्योधन बड़े वीर और राजनीतिज्ञ थे तथा शासनका समस्त कार्य दुर्योधन ही करते थे।

(ख) संत सभीको आदर दिया करते हैं और सञ्जय संत-स्वभावके थे।

(ग) पुत्रके प्रति आदरसूचक विशेषणका प्रयोग सुनकर धृतराष्ट्रको प्रसन्नता होगी। भाव यह है कि पाण्डव-सेनाकी व्यूहरचना धर्मक्षेत्र-कुरुक्षेत्र का परिचय

इतने विचित्र ढंगसे की गयी थी कि उसको देखकर दुयोंधन चकित हो गये और अधीर होकर स्वयं उसकी सूचना देनेके लिये द्रोणाचार्यके पास दौड़े गये। उन्होंने सोचा कि पाण्डव-सेनाकी व्यूहरचना देख-सुनकर धनुर्वेदके महान् आचार्य गुरु द्रोण उनको अपेक्षा अपनी सेनाकी और भी विचित्र रूपसे व्यूहरचना करनेके लिये पितामहको परामर्श देगे।

यद्यपि पितामह भीष्म प्रधान सेनापति थे, परंतु कौरव-सेनामें गुरु द्रोणाचार्यका स्थान भी बहुत उच्च और बड़े ही उत्तरदायित्वका था। सेनामें जिन प्रमुख योद्धाओंकी जहाँ नियुक्ति होती है, यदि वे वहाँसे हट जाते हैं तो सैनिक-व्यवस्थामें बड़ी अफरातफरी मच जाती है। इसलिये द्रोणाचार्यको अपने स्थानसे न हटाकर दुर्योधनने ही उनके पास जाना उचित समझा। इसके अतिरिक्त द्रोणाचार्य वयोवृद्ध और ज्ञानवृद्ध होनेके साथ ही गुरु होनेके कारण आदरके पात्र थे तथा दुर्योधनको सम्मान देकर उनका प्रियपात्र बनना उन्हें अभीष्ट था। परमार्थिक दृष्टि से तो सबसे नम्रतापूर्ण सम्मानयुक्त व्यवहार करना कर्तव्य है ही, राजनीतिमें भी बुद्धिमान् पुरुष अपना काम निकालनेके लिये दूसरोंका आदर किया करते हैं। इन सभी दृष्टियोंसे उनका वहाँ जाना उचित ही था।



पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम् ।


व्यूढां दुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता ॥ दुयोंधन बड़े चतुर कूटनीतिज्ञ थे। धृष्टद्युम्नके प्रति प्रतिहिंसा तथा पाण्डवोंके प्रति द्रोणाचार्यको । बुरी भावना उत्पन्न करके उन्हें विशेष उत्तेजित करने। के लिए दुर्योधनने धृष्टद्युम्नको द्रुपदपुत्र और 'आपका बुद्धिमान् शिष्य' कहा। इन शब्दोंके द्वारा वह उन्हें इस प्रकार समझा रहे है कि देखिये, द्रुपदने आपके साथ पहले बुरा बर्ताव किया था और फिर उसने आपका वध करने के उद्देश्यसे ही यज्ञ करके धृष्टद्युम्न इतना कूटनीतिज्ञ है और आप इतने सरल हैं कि आपको मारनेके लिये पैदा होकरभी उसने आपके ही द्वारा धनुर्वेदकी शिक्षा प्राप्त कर ली। फिर इस समय भी उसकी बुद्धिमानी देखिये कि उसने आपलोगोंको छकानेके लिये कैसी सुन्दर व्यूहरचना की है। ऐसे पुरुषको पाण्डवोंने अपना प्रधान सेनापति बनाया है। अब आप ही विचारिये कि आपका क्या कर्तव्य है।

संख्या में कम होने पर भी वज्रव्यूहके कारण पाण्डव-सेना बहुत बड़ी मालूम होती थी; दूसरे यह बात भी है कि संख्या में अपेक्षाकृत स्वल्प होनेपर भी जिसमें पूर्ण सुव्यवस्था होती है, वह सेना विशेष शक्तिशालिनी समझी जाती है। इसीलिये दुर्योधन कह रहे हैं कि आप इस व्यूहाकार खड़ी हुई सुव्यवस्थित महती सेनाको देखिये और ऐसा उपाय सोचिये जिससे हमलोग विजय हों।

किसी विशेष्यकी आवश्यकता भी नही है।

'भीमार्जुनसमाः' के साथ 'युधि' पदका अन्वय करके यह भाव दिखलाया है कि यहाँ जिन महारथियोंके नाम लिये गये हैं, वे पराक्रम और युद्धविद्यामें भीम और अर्जुनकी ही समता रखते हैं। अर्जुन के शिष्य सात्यकिका ही दूसरा नाम युयुधान था। ये भगवान् श्रीकृष्णके परम अनुगत थे और बड़े ही बलवान् एवं अतिरथी थे। ये महाभारतयुद्धमें न मरकर यादवोंके पारस्परिक युद्धमें मारे गये थे। युयुधान नामक एक दूसरे यादववंशीय योद्धा भी थे।

विराट मत्स्यदेशके धार्मिक राजा थे। पाण्डवोंने एक वर्ष इन्हींके यहाँ अज्ञातवास किया था। इनकी पुत्री उत्तरा का विवाह अर्जुनके पुत्र अभिमन्यु के साथ हुआ था। ये महाभारतयुद्धमें उत्तर, श्वेत और शंखनामक तीनों पुत्रों सहित मारे गये।
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द्रुपद पञ्चालदेशके राजा पृषत्के पुत्र थे। राजा

पृषत् और भारतद्वाज मुनिमें परस्पर मैत्री थी, द्रुपद भी बालक-अवस्थामें भारद्वाज मुनिके आश्रममें रहे थे। इससे भारद्वाज के पुत्र द्रोणके साथ इनकी भी मित्रता हो गयी थी। पृषत्के परलोकगमनके पश्चात् द्रुपद राजा हुए तब एक दिन द्रोणने इनके पास जाकर इन्हें अपना मित्र कहा। द्रुपदको यह बात बुरी लगी। तब द्रोण मन में क्षुब्ध होकर चले आये। द्रोणने कौरवों और पाण्डवोंको अस्त्रविद्याकी शिक्षा देकर गुरुदक्षिणामें अर्जुनके द्वारा द्रुपदको पराजित कराकर अपने अपमानका बदला चुकाया और उनका आधा राज्य ले लिया। द्रुपदने ऊपरसे द्रोण से प्रीति कर ली, परंतु उने मनमें क्षोभ बना रहा । उन्होंने द्रोणको मारनेवाले पुत्रके लिये याज और उपयाजनामक ऋषियों के द्वारा यज्ञ करवाया। उसी यज्ञ की वेदी से धृष्टद्युम्न तथा कृष्णा का प्राकट्य

अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि । युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथः ॥ धृष्टकेतुश्चेकितानः काशिराजश्च वीर्यवान् । पुरुजित्कुन्तिभोजश्च शैब्यश्च नरपुङ्गवः ॥ युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान्। सौभद्रो द्रौपदेश्याश्च सर्व एव महारथाः ।। 'अन्न' पद यहाँ पाण्डव-सेनाके अर्थमें प्रयुक्त है।

'युधि' पद यहाँ 'अत्र' का विशेष्य नहीं बन सकता, क्योंकि उस समय युद्ध आरम्भ ही नहीं हुआ था। इसके अतिरिक्त उसके पहले पाण्डव- सेनाका वर्णन होनेके कारण 'अत्र' पद स्वभावसे ही उसका वाचक हो जाता है इसीलिये उसके साथ

हुआ। यही कृष्णा 'द्रौपदी' या 'याज्ञसेनी' के नाम से प्रसिद्ध हुई और स्वयंवर में जीतकर पाण्डवों ने उसके साथ विवाह किया। राजा द्रुपद बड़े ही शूरवीर और महारथी थे। महाभारतयुद्धमें द्रोणके हाथसे इनकी मृत्यु हुई।

धृष्टकेतु चेदिदेशके राजा शिशुपालके पुत्र थे। ये महाभारतयुद्धमे द्रोणके हाथसे मारे गये थे।

चेकितान वृष्णिवंशीय यादव महारथी योद्धा और बड़े शूरवीर थे। पाण्डवोंकी सात अक्षौहिणी सेनाके सात सेनापतियोंमेसे एक थे। ये महाभारत- युद्धमे दुयोंधनके हाथसे मारे गये ।

काशिराज काशीके राजा थे। ये बड़े ही वीर और महारथी थे। इनके नामका ठीक पता नहीं लगता। काशीराज का नाम सेनाविन्दु और क्रोधहन्ता बतलाया गया है। कर्णपर्व अध्याय छः में जहाँ काशिराज के मारे जानेका वर्णन है, वहाँ उनका नाम 'अभिभू' बतलाया गया है।

पुरुजित् और कुन्तिभोज दोनों कुन्तीके भाई थे और युधिष्ठिर आदिके मामा होते थे। ये दोनो ही महाभारतयुद्धमें द्रोणाचार्यके हाथसे मारे गये ।

शैब्य धर्मराज युधिष्ठिर के श्वसुर थे, इनकी कन्या देविकासे युधिष्ठिरका विवाह हुआ था। ये मनुष्यों में श्रेष्ठ, बड़े बलवान और वीर योद्धा थे। इसीलिये इन्हें 'नरपुङ्गव' कहा गया है।

युधामन्यु और उत्तमौजा-दोनों भाई पाशालदेशीय राजकुमार थे। पहले अर्जुन के रथ के पहियोंकी रक्षा करनेपर इन्हें नियुक्त किया गया था। ये दोनो ही बड़े भारी पराक्रमी और बलसम्पन्न बोर थे, इसीलिये इनके साथ क्रमशः 'विक्रान्त' और 'वीर्यवान्' दोनों विशेषण जोड़े गये है। ये दोनों रातको सोते समय अश्वत्थामाके हाथसे मारे गये थे।

अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्णकी बहिन सुभद्रा से विवाह किया था। उन्हीके गर्भसे अभिमन्यु उत्पन्न हुए थे। मत्स्यदेशके राजा विराटकी कन्या उत्तरासे उनका विवाह हुआ था। इन्होंने अपने पिता अर्जुनसे और प्रद्युम्नसे अखशिक्षा प्राप्त की थी ये असाधारण वीर थे। महाभारतयुद्धमें द्रोणाचार्यने एक दिन चक्रव्यूहकी ऐसी रचना की कि पाण्डव-पक्षके युधिष्ठिर, भीम, नकुल, सहदेव, विराट, द्रुपद, धृष्टद्युम्न आदि कोई भी वीर उनमें प्रवेश नहीं करक सकें; जयद्रथने सबको परास्त कर दिया। अर्जुन दूसरी ओर युद्ध में लग गये थे। उस दिन वीर युवक अभिमन्यु अकेले ही व्यूहको भेदकर उसमें घुस गये और असंख्य वीरों का संहार करके अपने असाधाण शौर्यका परिचय दिया। द्रोण, कृपाचार्य, कर्ण, अश्वत्थामा, बहृद्वल और कृतवर्मा-इन छः महारथियो ने मिलकर अन्यायपूर्वक इन्हें घेर लिया; उस अवस्थाममें भी इन्होंने अकेले ही बहुत-से वीरोंका संहार किया। अन्त में दुःशासन के लड़केने इनके सिर पर गदा का बड़े जोर से प्रहार किया, जिससे इनकी मृत्यु हो गयी। राजा परीक्षित् इन्हीं के पुत्र थे।

प्रतिविन्ध्य, सुतसोम, श्रुतकर्मा, शतानीक और श्रुतसेन-ये पाँचों क्रमशः युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन, नकुल और सहदेव के औरस और द्रौपदीके गर्भसे उत्पन्न हुए थे। इनको रात्रिके समय अश्वत्थामा ने मार डाला था।

शास्त्र और विद्याशास्त्र में अत्यन्त निपुण उस असाधारण वीरको महारथी कहते हैं, जो अकेला ही दस हजार धनुर्धारी योद्धओका युद्धमे संचालन करता हो।




स्तु धन्विनाम् ।एको दशसहस्त्राणि योधयेद्य





शस्त्रशास्त्रप्रवीणश्च महारथ इति स्मृतः ॥


FAQ


दुर्योधन ने यहाँ जिनयोद्धा ओके नाम लिये है.





सभी महारथी है-इसी भावसे ऐसा कहा गया है। प्रायः इन सभी बीरों के पराक्रमका से पृथक्रूपसे विस्तृत वर्णन पाया जाता है। वहाँ भी इन्हें अतिरथी और महारथी बतलाया गया है। इसके अतिरिक्त पाण्डवसेनामें और भी बहुत-से महारथी थे, उनके भी नाम वहाँ बतलाये गये हैं। यहाँ 'सर्वे' पदसे दुर्योधनका कथन उन सबके लिये भी समझ लेना चाहिये।




अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम । नायका मम सैन्यस्य संज्ञार्थ तान् ब्रवीमि ते।।




हे ब्राह्मणश्रेष्ठ ! अपने पक्ष में भी जो प्रधान हैं, उनको आप समझ लीजिये। आपकी जानकारी के लिये मेरी सेनाके जो-जो सेनापति है, उनको बतलाता हूँ। 'तु' पद यहाँ 'भी' के अर्थमें हैं; इसका 'अस्माकम्' के साथ प्रयोग करके दुर्योधन यह कहना चाहते हैं कि केवल पाण्डव सेनामे ही नहीं, अपने पक्षमें भी बहुत-से महान् शूरवीर हैं।




दुयोंधन 'विशिष्टाः' पद का प्रयोग उनके लक्ष्यसे किया है, जो उनकी सेनामें सबसे बढ़कर वीर, धीर, बलवान्, बुद्धिमान, साहसी, पराक्रमी, तेजस्वी और शस्त्रविद्याविशारद पुरुष थे और 'निबोध' क्रियापद से यह सूचित किया है कि अपनी सेनामें भी ऐसे सवर्वोत्तम शूरवीरोंकी कमी नहीं है; मैं उनमें से कुछ चुने हुए वीरोंके नाम आपकी विशेष जानकारी के लिये बतलाता हूँ, आप मुझसे सुनिये।




महर्षि अग्निवेश्यसे और श्रीपरशुरामजीसे रहस्यसमेत समस्त अस्त्र-शस्त्र प्राप्त किये थे। ये वेद वेदाङ्गके जाता, महान् तपस्वी धनुर्वेद तथा शखाख-विद्याके अत्यन्त मर्मज्ञ और अनुभवी एवं युद्धकलामें नितान्त निपुण और परम साहसी अतिरथी वीर थे। ब्रह्मास्त्र, आग्नेयाशास्त्र आदि विचित्र अस्त्रों का प्रयोग करना इन्हें भली भांति ज्ञात युद्धक्षेत्र में जिस समय ये अपनी पूरी शक्तिसे भिड़ जाते थे, उस समय इन्हें कोई जीत नहीं सकता था। इनका विवाह महर्षि शरद्वजन्की कन्या कृपी से हुआ था। इन्हींसे अश्वत्थामा उत्पन्न हुए थे। राजा द्रुपद के ये बालसखा थे। एक समय इन्होंने द्रुपद के पास जाकर उन्हें प्रिय मित्र कहा, तब ऐश्वरर्यमदसे चूर द्रुपदने इनका अपमान करते हुए कहा-'मेरे- जैसे ऐश्वर्यसम्पन्न राजाके साथ तुम-सरीखे निर्धन, दरिद्र की मैत्री नहीं हो सकती।' द्रुपदके इस तिरस्कारसे इन्हें बड़ी मर्मवेदना हुई और ये हस्तिनापुरमें आकर अपने साले कृपाचार्यके पास रहने लगे। वहाँ पितामह भीष्मसे इनका परिचय हुआ और इन्हें कौरव-पाण्डवकी शिक्षा के लिये नियुक्त किया गया। शिक्षा समाप्त होने पर गुरुदक्षिणाके रूप में इन्होंने राजा द्रुपद को पकड़ लाने के लिये शिष्यों से कहा। महात्मा अर्जुन ही गुरु की इस आज्ञा का पालन कर सके और द्रुपदको रणक्षेत्रमें हराकर सचिव सहित पकड़ लाये। द्रोणने द्रुपदको बिना मारे छोड़ दिया, परंतु भागीरथीसे उत्तरभागका उनका राज्य ले लिया। महाभारत युद्ध में इन्होंने पाँच दिनतक सेनापति पदपर रहकर बड़ा ही घोर युद्ध किया और अन्तमें अपने पुत्र अश्वत्थामा की मृत्युका भ्रममूलक समाचार सुनकर इन्होने शस्त्रास्त्र का परित्याग कर दिया और समाधिस्थ होकर ये भगवान्का ध्यान करने लगे।,




था।




रस-चनमाली : अगस्त २००६/




भवान् भीमश्च कर्णश्च कृपश्च समितिञ्जयः । अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव च ॥




द्रोणचार्य और पितामह भीष्म तथा कर्ण और संग्रामविजयी कृपाचार्य तथा वैसे ही अश्वत्थामा, विकर्ण और सोमदत्त का पपुत्र भूरिश्रवा। द्रोणाचार्य महर्षि भारद्वाज के पुत्र थे। इन्होंने






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